पंकज तिवारी लोगों को देवी-देवताओं के सम्मोहक चित्रों से परिचित करवाने वाले कलाकार थे राजा रवि वर्मा। इनके द्वारा ही मुंबई में लीथोग्राफ प्रेस की स्थापना (1894) की गई, फलत: अधिक और सस्ते चित्रों का निर्माण होने से देश के अधिकतर घरों में इनके चित्रों की पहुंच हुई। राजा रवि वर्मा के चित्रों में लोगों को अपने भगवान नजर आये और उनकी पूजा भी हुई। अपने चित्रों के विषय और सजीवता के बल पर ही रवि वर्मा भारतीय जनमानस के दिलों पर राज करने लगे थे। कहना गलत न होगा कि रवि…
Read MoreCategory: नाद रंग
कला देखने के दरमियान
अमित कल्ला सारे द्वार /खोलकर /बाहर निकल /आया हूं /यह /मेरे भीतर /प्रवेश का /पहला कदम है –जैन मुनिश्री क्षमासागर की यह सरल-सी कविता मुझे भी अपने भीतर प्रवेश करने का अनुनय करती दीखती है और मैं अपने मन के बहुतेरे द्वार खोलकर किन्हीं चित्रों को देखने कि कोशिश करता हूं, जहां बहुत सारी मूर्त-अमूर्त आकृतियां नई रोशनी लिए भीतर उतरने को उभर आयी हैं।गाहे-बगाहे हमारे द्वारा कुछ भी देखा जाना मौटे तौर पर किसी सहज वृति का ही नाम है, दरअसल जो एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे चाहे-अनचाहे हमें गुज़ारना…
Read Moreकहे में जो है अनकहा
नादरंग-4 (संपादकीय) शब्दों की अपनी सीमाएं हैं। कई अनुभूतियां ऐसी होती हैं जिन्हें व्यक्त करते हुए लगता है कि शब्द कम पड़ रहे हैं या उनके अर्थों में इतनी सामर्थ्य नहीं है जो सटीक वर्णन कर सकें। एक अधूरेपन का बोध होता है, लगता है जैसे ये अनुभूतियां शब्दों के कोश की पकड़ से परे हैं। मराठी कवि मंगेश पाडगांवकर ने ‘शब्दावाचुन कड़ले सारे शब्दांच्या पलिकडले..’ में शब्दों से परे की बात क्या इसीलिए की थी या हिन्दी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने अपनी बेटी की हंसी का वर्णन…
Read Moreभारत मेरा दूसरा घर
अमित कल्ला से इनसंग सांग दक्षिण कोरिया के क्यूरेटर इनसंग सांग से मिलना हमेशा ही मन को एक अलग अहसास देता रहा है, दृश्य कलाओं के प्रति उनकी दीवानगी को विभिन्न कला उत्सवों में उनके जयपुर आने के दौरान अक्सर करीब से देखता रहा हूं | दो वर्ष पहले उनके साथ लम्बी यात्राओं के भी अवसर आए, तब कला की संजीदगी के अलावा जीवन के प्रति उनके विनम्र स्वभाव और मन की धीरता को देखकर मैं उनका कायल हो गया | सांग अपने आप में जिन्दगी से दो-दो हाथ करते…
Read Moreपुरानी लकीर पीटते हैं सरकारी कला मेले
‘नादरंग’ से शैलेन्द्र भट्ट कला से जुड़े कई आयोजनों का अपना एक विशिष्ट महत्व है जहां एक मंच पर कई कलाकारों, कला समीक्षकों, कलाप्रेमियों को संवाद और कलाकृतियों के प्रदर्शन अवसर मिल पाता है। कला के प्रोत्साहन में ऐसे कई समारोह राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हैं जिनमें जयपुर आर्ट समिट ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। समिट की सफलता को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि इसने 2017 में आयोजन के अपने पांचवे वर्ष में 50 देशों के कलाकारों को जोड़ लिया। हालांकि समिट में इधर कुछ…
Read Moreआशाएं जीवन की जद्दोजहद में खो गईं
रवीन्द्र दास से पाण्डेय सुरेन्द भारत विभाजन के कुछ दिनों बाद ही मुंबई के कलाकारों द्वारा 1948 में प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की स्थापना हो गई थी l भारतीय कला में बंगाल स्कूल द्वारा स्थापित राष्ट्रीयता के विरोध में और अंतरराष्ट्रीय कला आंदोलनों को भारतीय कला से जोड़ने के उद्देश्य से प्रोग्रेसिव ग्रूप की स्थापना हुई थी l उन दिनों पुरे देश के कलाकारों के बीच बंगाल ग्रूप और प्रोग्रेसिव ग्रूप इन्हीं दोनों की चर्चा होती थी lबिहार के कला इतिहास पर अगर नजर दौड़ाएं तो 70 के दशक तक बिहार…
Read Moreजैसे स्थिर पानी में मारा गया हो कंकड़
‘नादरंग-4’ के सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे आलेखों, साक्षात्कारों पर हमें व्यापक प्रतिक्रिया मिल रही है। इनमें से चुनिंदा टिप्पणियां हम यहां साझा कर रहे हैं- ईमानदारी से नहीं लिखा गया संगीत का इतिहास (विजय शंकर मिश्र से प्रख्यात शास्त्रीय-उपशास्त्रीय गायक राजन-साजन मिश्र की बातचीत) काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्द कानन एवं महाश्मशान- आधुनिक बनारस के ये 5 प्राचीन नाम- इसकी 5 भिन्न विशेषताओं को रेखांकित करते हैं। डा. काणे ने हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में लिखा है कि काशी रोम, येरुशेलम और मक्का से भी प्राचीन तथा पवित्र है।…
Read Moreमुख्यधारा के रंगमंच का असली चेहरा
राजेश कुमार रंगमंच के विभिन्न प्रकारों की चर्चा होती है तो संस्कृत रंगमंच, ग्रीक रंगमंच, पाश्चात्य रंगमंच, पारसी रंगमंच, मनोशारीरिक रंगमंच, यथार्थवादी रंगमंच, तीसरा रंगमंच जैसे नाम तत्काल स्मरण में आते हैं। लेकिन इनदिनों रंगमंच के गलियारों से एक नया नाम दबे – फुसफुसे रूप में सुनने को मिल रहा है जो न रंगमंच के किसी ग्रंथों, किताबों के पन्नों में दिखाई देता है, न रंग आलोचना – समालोचना के किसी कोने या सरकारी नाट्य संस्थानों के किसी गलियारे – चबूतरों के इर्द – गिर्द। संभव है कि आप इस…
Read Moreसरकार का काम है धमकाना, रंगमंच का लड़ना
प्रतुल जोशी से रंगकर्मी रतन थियम ( नादरंग 4 ) (स्थानः कोरस रेपेटरी थिएटर-इम्फाल) 0 थिएटर के बारे में आपने कहीं कहा था कि मैं अभी भी थिएटर को समझने की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ हूं, तो सबसे पहले तो यह बताइए कि थिएटर का आपके लिए क्या अर्थ है?– मैंने इसलिए कहा था कि मुझे लगता है थिएटर जो है वह एक जगह कभी नहीं रहता है और हमेशा बदलता रहता है और इसकी प्रक्रिया जो है ये हुआ एक सिचुएशन का। लेकिन प्रक्रिया जो है वह ये है…
Read Moreविरासत के विनाश की बेचैनी में काम्बोज की कला
मंजुला चतुर्वेदी पर्यावरण विमर्श के सन्दर्भ में कलाजगत में भगवती प्रकाश काम्बोज एक सशक्त और प्रासंगिक हस्ताक्षर हैं। उनकी कृतियों में पर्यावरण, जीवन और सांस्कृतिक मूल्यों के सुन्दर समन्वय, उसकी आवश्यकता और निरन्तरता को रूपायित करने का प्रयास स्पष्ट है। काम्बोज अपने चित्रों के माध्यम से जनमानस को सचेत करने का प्रयास करते हैं कि यदि प्रकृति संपुष्ट नहीं है तो जीवन का अस्तित्व भी गहन संकट से घिर जाएगा। कहीं मानव जीवन विकास की दौड़ में कागजी दस्तावेज बनकर न रह जाए, ये एक चेतावनी भी उनके चित्र…
Read Moreईमानदारी से नहीं लिखा गया संगीत का इतिहास
विजयशंकर मिश्र से राजन एवं साजन मिश्र काशी, वाराणसी, अविमुक्त, आनन्द कानन एवं महाश्मशान- आधुनिक बनारस के ये 5 प्राचीन नाम- इसकी 5 भिन्न विशेषताओं को रेखांकित करते हैं। डा. काणे ने हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में लिखा है कि काशी रोम, येरुशेलम और मक्का से भी प्राचीन तथा पवित्र है। सिस्टर निवेदिता ने इसे वैटिकन सिटी से हजार गुना पवित्र लिखा है। संगीतेश्वर महादेव का क्रीड़ांगन होने के कारण यह स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी कि बनारस और संगीत का संबंध अनन्य, अभिन्न और अटूट है। तभी तो इसे…
Read Moreअक्ल से आगे है कला की मंजिल
रेखा के.राणा से चित्रकार सैय्यद हैदर रजा भारत की स्वतन्त्रता के पूर्व व पश्चात के दशकों में आधुनिकता के नाम पर कला में अनेक प्रकार के प्रयोग हो रहे थे। तत्कालीन समय के सर्वाधिक प्रयोगधर्मी कलाकारों में सैय्यद हैदर रजा का नाम आता है। रजा का जन्म 1922 में मध्य प्रदेश के बावरिया में हुआ था। रजा के चित्रों पर उनके जन्म स्थान की संस्कृति एवं कला अपने गहरे रूपों में विराजमान थी। रजा ने कई दशकों तक कला जगत में कार्यशील होकर अपनी उपस्थिति दर्शाई । 1947 में भारत…
Read Moreकभी मुड़कर कल के मकबूल को देखा है ?
नवीन जोशी सन् 2003 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘एम एफ हुसेन की कहानी, अपनी जुबानी’ को रिलीज करने हुसेन कई शहरों में गए थे। उसी क्रम में वे पटना भी आए। मैं उन दिनों पटना में था। हुसेन के साथ एक कप कॉफी पीने का मौका ‘हिन्दुस्तान’ के स्थानीय संपादक की हैसियत से मुझे भी मिला। हुसेन प्रशंसकों से घिरे थे, अलग से कुछ बातें करने का अवसर नहीं था। फिर भी हुसेन से मिलना रोमांचक अनुभव रहा। उन्होंने मुझे भी अपनी आत्मकथा की एक प्रति दी और हमारे एक…
Read Moreविजय सिंह- सादगी और रहस्य की तलाश
मंजुला चतुर्वेदी बनारस के समकालीन कला परिदृश्य में विजय सिंह एक प्रमुख नाम है । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में व्यावहारिक कला के शिक्षक होने के बावजूद वे चित्रकला के एक प्रयोगधर्मी कलाकार हैं। उन्होंने प्रचुर चित्रों का निर्माण किया एवं कर रहे हैं तथा कई सुन्दर मूर्तिशिल्प उकेरे हैं। श्वेत श्याम रेखांकन-चित्रों के लिए उन्हें विशेष ख्याति प्राप्त हुई। श्वेत श्याम छवियों में उन्होंने पैन एवं इंक की सहायता से विभिन्न प्राकृतिक दृश्य एवं अन्य संयोजन निर्मित किए है जो अपने त्रिआयामी प्रभाव और रूपाकारों की विशेषता के कारण ध्यान…
Read Moreसमकालीन कला की अवधारणा
रेखा के. राणा किसी भी रचना में समय अनिवार्य तत्व है। रचना के विषय प्रथमतः समय के झरोखे से होकर आते हैं। वस्तुतः विषय तो हमारे चारों ओर उपस्थित हैं, उन्हें ग्रहण करने में रचनाकार की संवेदनशीलता विशेष रूप से माध्यम के रूप में काम करती है। कला के सभी रूप अपने परिवेश के साथ लगातार टकराव से उपजते हैं किन्तु भारतीय संदर्भ में शाश्वत और चिरंतन मूल्यों की अजस्र धारा संवेदना की अभिव्यक्तियों को इस प्रकार प्रभावित करती रही कि कला के यथार्थ रूप या तो सामने आए ही…
Read Moreस्मृतियों के कई रंग
जयकृष्ण अग्रवाल कभी कभी बड़े अहम लोग हाशिए पर चले जाते है। ऐसे ही थे लखनऊ कला महाविद्यालय के लीथो प्रोसेस फोटो मेकैनिल विभाग के प्रवक्ता हीरा सिंह बिष्ट। फोटोग्राफिक डार्करूम आदि की सुविधा भी इसी विभाग में उपलब्ध थी। फोटो फिल्म का जमाना था और कैमरे के बाद सारा काम तो डार्करूम में ही होता था। हीरा सिंह जी को सारे कैमिकल्स और उनके प्रयोग के बारे में विस्तृत जानकारी थी। किन्तु वह समय था जब फोटोग्राफी से अधिक लोगों की रुचि कैमरों तक ही सीमित थी। आमतौर से…
Read Moreशरद पांडेय-नारी संवेदनाओं का चितेरा
■ भूपेंद्र कुमार अस्थाना नारी भावों को अत्यंत खूबसूरती से अपने चित्रों में शरद पांडेय ने बखूबी उतारा है। वे अपने चित्रों में नारी को केंद्रीय पात्र बनाकर मार्मिक दृश्य सूत्र प्रस्तुत करने की कोशिश करते थे। चित्रों में आशा भरी नज़रें, इंतज़ार करती महिलाओं के भावों को मुख्य रूप से अपने चित्रों में स्थान देते थे। इनकी भूरे रंग की प्रधानता लिए चित्र मुख्य रूप से एक अलग प्रभाव छोड़ते हैं। इसके साथ ही लाल तथा हरे रंग का प्रयोग भी कहीं पीछे नहीं है। उनका भी अपना एक…
Read Moreउत्तर प्रदेश का रंग परिदृश्य
-आलोक पराड़कर रात के करीब डेढ बजे थे। अमूमन इस वक्त व्हाट्स एप पर समूहों के ही यदा-कदा संदेश आते हैं लेकिन जब संदेश की ध्वनि कई बार आती गई तो मोबाइल देखना पड़ा। कई छोटे-छोटे संदेश थे। सर, आप मेरा एक काम कर दो, आप मेरे मम्मी-पापा का भी एक इंटरव्यू ले लो। लेकिन उन्हें यह नहीं पता चलना चाहिए कि मैंने आपसे कहा है। आप इंटरव्यू लेंगे तो शायद उन्हें अहसास होगा कि मैंने कोई बड़ा काम किया है। यह सुगंधा थी। दो दिन पहले ही उससे बातचीत…
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